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मैं पुरुष हूँ…
मैं कुचलता हूँ हर इक आवाज़ को जो मेरे खिलाफ उठती है…
मैं नहीं चाहता कभी समानता का अधिकार…
क्यूँ चाहूँ मैं???
कि चरणों की दासी मेरे बराबर पे आये…
क्यूँ मैं बरसों से आ रही परम्परा को तोडू
क्या द्रोपदी… क्या सीता….
मैंने सब को हैं रौंदा….
मैंने ही छल कर के अहिल्या की अस्मिता से खेला…
मैं ही इंद्र हूँ….हूँ मैं ही दुस्सासन…
हूँ मैं ही दुर्योधन आज का..मैं ही था कल का रावण….
नहीं चाहता किसी औरत से हारना….
बर्दाश नहीं अपने बेटे के अलावा हार खुद की किसी और से…
नहीं चाहता मुझे से ऊपर कोई औरत हो…
औरत….
जुती थी…है…और रहेगी….
कुछ भी कर लो….
कर लो बड़ी बड़ी बातें…..
मैं कुछ भी करूँ….हमेशा अपनी बीवी का भगवान् ही रहूँगा….
क्यूंकि मैं पुरुष हूँ…
औरत….
कमजोर..बुस्द्दिल….बेबस…
फोटोग्राफर की फोटो में बेबस…
कवि की कल्पना में बेबस….
पेंटर के रंगों में बेबस….
बेबस थी…है….और रहेगी….
मर जाएँ हजारों दामिनियाँ….
मेरी अहम् नहीं डिगने वाला….
क्यूंकि मैं पुरुष हूँ….
मैं ही हूँ पितृ प्रधान समाज के कर्ताधर्ता….
मैं ही हूँ…मैं ही हूँ..मैं ही हूँ….
रातों रात बदल नहीं सकता कुछ भी….
चूड़ियों की खनखनाहट को जो सहारा चाहिए वो मैं ही हूँ….
हां तुझे नौं दिन पूज सकता हूँ पर साल भर जूते की नोक पर ही रखूँगा…
क्यूंकि मैं पुरुष हूँ….पुरुष….
ताकतवर….श्रेष्ठ….सर्वश्रेष्ठ…
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